वंदना कुमारी, डाॅ. आनन्द कुमार सिंह
जब तक अर्थ में संचय की बात नहीं थी, तब तक मानव समाज में किसी भी प्रकार के वर्ग की संकल्पना नहीं थी। अर्थ के प्रभुत्व ने मानव समाज की संरचना को ही वदल दिया। मानव समाज ने जब से अपने आपको अर्थ संचय की प्रक्रिया से जोड़ा तब से मानव समाज में बड़े-छोटे की भावना ने घर करना आरंभ कर दिया। बहादुर सिंह परमार का यह कहना उस अधूरे सत्य की ओर संकेत है कि “मानव समाज की कल्पना के साथ हमारे मस्तिष्क में वर्गों का स्वरूप उभरता है और इन वर्गों को ही एक प्रकार से सामाजिक श्रेणीकरण का विशिष्ट रूप कहा जाता है।‘‘1 मानव समाज की कल्पना उस समय से प्रारंभ हो गयी थी जव मानव समूहबद्ध नहीं था। मानव अपने आपको अकेले असुरक्षित एवं कमजोर महसूस कर रहा था। उसने अपने आपको सुरक्षित एवं मजबूत बनाने के लिए धीरे-धीरे समूहबद्ध होना प्रारम्भ किया। इसकी समूहबद्धता प्रारम्भ में अर्थ पर निर्भर न होकर मानव समाज के वाहुवल पर निर्भर था। उस समय मानव के भीतर की श्रेणियाँ यह बताती हैं कि ताकत वालों का एक दल था उससे कम ताकत वालों का दूसरा तथा सबसे कमजोर तीसरा दल था। श्रेणी अथवा वर्ग को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक मैकाइवर तथा पेज ने कहा है “किसी वर्ग का अर्थ ऐसे श्रेणी अथवा प्रकार से है जिसके अंतर्गत व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह आते हैं।‘‘2 वर्ग या श्रेणी की जिस बात का उल्लेख मैकाइवर ने किया है उसके बहुत से चरण हैं। वर्ग की अवधारणा का प्रारम्भिक स्वरूप कार्य के आधार पर था वहु प्रचलित चतुष्यवर्ग के जिस बात से आज का समाज नहीं मान पा रहा है।
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