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International Journal of Humanities and Arts
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Vol. 7, Issue 1, Part F (2025)

बौद्ध विज्ञानवाद का विकास एवं कृतियों का सामान्य अध्ययन

Author(s):

रमेश चन्द्र बैरवा

Abstract:

विज्ञानवाद बौद्ध दर्शन के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसकी दार्शनिक दृष्टि शुद्ध प्रत्ययवाद की है। दार्शनिक दृष्टि से विज्ञानवाद तथा व्यावहारिक दृष्टि से योगाचार कहलाता है। इस सम्प्रदाय की छत्रछाया में ही बौद्ध न्याय का जन्म हुआ। इनके अनुसार सब कुछ विज्ञान ही है, विज्ञान के अतिरिक्त अन्य की सत्ता नहीं है। बौद्ध धर्म तथा दर्शन के इतिहास पर यदि हम एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें अनेक तथ्यों का परिचय प्राप्त होता है। विक्रम पूर्व षष्ठ शतक से लेकर विक्रम पूर्व तृतीय शतक तक स्थविरवाद की प्रधानता उपलब्ध होती है। महाराज अशोक के समय बौद्ध धर्म को पूर्णरूप से राजाश्रय प्राप्त था। राजा ने इसे विश्वव्यापी धर्म बनाने के लिए अथक प्रयास किया एवं सफलता भी प्राप्त की। उन्होंने स्थिरवाद को ही अपनाया और उसे ही बुद्ध का माननीय सिद्धान्त मानकर प्रचारित भी किया। विक्रम के आरम्भ काल तक यही स्थिति रही। विक्रम के द्वितीय शतक में कुषाण नरेश कनिष्क के समय में स्थिविरवाद के स्थान पर सर्वास्तिवाद को मान्यता मिली तथा उसी का प्रचार भी हुआ। चतुर्थ संगीति के समय से सर्वास्तिवाद (या वैभाषिक) मत का प्रमुख देशव्यापी हो गया। कनिष्क ने इसे अपनाया तथा उत्तरी देशों में इसके प्रचारक भेजकर इसका विस्तार किया। चीन देश में यह उसी समय गया। पंचम शतक में भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा कुमारगुप्त के राज्यकाल में सर्वास्तिवाद ने खूब जोर पकड़ा। वसुबन्धु तथा स्थूलभद्र जैसे आचार्यों ने अपने नवीन पाण्डित्वपूर्ण ग्रन्थों से इसमें जीवनी शक्ति फँूक दी।

Pages: 429-433  |  632 Views  222 Downloads


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How to cite this article:
रमेश चन्द्र बैरवा. बौद्ध विज्ञानवाद का विकास एवं कृतियों का सामान्य अध्ययन. Int. J. Humanit. Arts 2025;7(1):429-433. DOI: 10.33545/26647699.2025.v7.i1f.190
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