पूरन सिंह यादव
भारतीय सामाजिक संरचना के अंतर्गत जातियों के विकास में व्यवसायों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। विशेषकर पूर्व मध्यकाल में जातियों का गठन विकास और विस्तार का आधार मुख्यतः व्यवसाय ही था। मनु के अनुसार जातियों का उद्भव वर्णाें के पारस्परिक मिश्रण अवैध विवाह सम्बन्ध और कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण हुआ। मुसलमानों के वाह्य आक्रमण से तथा समाज की आंतरिक अव्यवस्था ने पारस्परिक श्रेष्ठता शौचाचार, धार्मिक सक्रियता आदि ने नई जातियों के उत्पन्न होने के लिये अनुकूल कारक उपस्थित किया। मनुस्मृति में उल्लिखित अधिकांश कथित वर्णसंकर जातिय̐ा वस्तुतः जनजातियां या विदेशी जातिय̐ा हैं। मेधातिथि ने अनुलोमों का वर्ण निर्धारण माता के वर्णानुसार किया और प्रतिलोमों के शूद्रों के अधिकार और कर्तव्यों का अधिकारी माना। मनु के कथन ‘नास्ति तु पंचम’ पर टिप्पणी करते हुए कुल्लूक भट्ट ने वर्णसंकर जातियों के लिये लिखा की ‘जो संकीर्ण जातिय̐ा हैं वे माता-पिता के भिन्न जाति की होती हैं अर्थात् उनमें जाति का अंतर तो हो जाता है, वर्ण का अंतर नहीं हो पाता है। कुल्लूक का उक्त कथन तथाकथित वर्णसंकर जातियों के हिन्दू समाज में समायोजन की प्रवृत्ति का परिचायक है।
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