पंचम खण्डेलवाल
हाड़ौती के सांस्कृतिक परिवेश की युग-युगीन धारा देखने पर विदित होता है कि अनेक सांस्कृतिक समृद्धियों के बावजूद यहाँ का जन जीवन आज तक पिछड़ा हुआ है। सत्तर प्रतिशत जनता गाँव में रहती है। प्रत्येक ग्राम के मध्य भू-स्वामी कृषक का मकान होता है जो वहाँ के समाज की वर्ण-व्यवस्था की दृष्टि से उच्च वर्ग का प्रतिनिधि है। निचली जाति के लोग आज भी गांव की बाहरी सीमा पर अपने झोपड़ें में रहते है। भाषा एवं बोली के बारे में यहाँ पर एक लोकोक्ति अधिक चरितार्थ होती है। ‘‘चार कोस पे बोली बदले, पाँच कोस पे पानी’’। ‘डॉ. ग्रियर्सन’ ने भाषा के वर्गीकरण के अनुसार यहाँ की भाषा इण्डो यूरोपियन परिवार की इण्डो आर्यन शाखा के मध्य ग्रुप की ठहरती है। यहाँ पांच, छः बोली के स्वरूप पाए जाते हैं। इनमें मुख्य बोली राजस्थानी भाषा से प्रभावित है। हाड़ौती की एक विशिष्ट जीवनचर्या, जीवन दर्शन तथा लोक में प्रचलित धार्मिक, सामाजिक अवसरों पर लोक की मानसिकता से युक्त होकर स्त्री या पुरूषों के द्वारा सहज सुलभ साधनों से घर के आंगन, दीवारों, दरवाजों, शरीर के अंगो पर गोदना, मिट्टी सूखे रंग अबीर, गुलाल, हल्दी, रोली-चावल, आलता, कोयला, हिरमिच, खड़िया, पत्ती पुष्प रस आदि के अंगो से जो रूपायन हाड़ौती में किया जाता है। हाड़ौती की लोक चित्रकला के स्त्रोत धार्मिक आख्यान, लोक साहित्य, ऐतिहासिक ग्रंथ, प्राचीन खण्डहर प्राचीन वृत्तान्त और परम्परा रही है।
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